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ज्‍योतिष या ज्यौतिष विषय वेदों जितना ही प्राचीन है। प्राचीन काल में ग्रह, नक्षत्र और अन्‍य खगोलीय पिण्‍डों का अध्‍ययन करने के विषय को ही ज्‍योतिष कहा गया था। इसके गणित भाग के बारे में तो बहुत स्‍पष्‍टता से कहा जा सकता है कि इसके बारे में वेदों में स्‍पष्‍ट गणनाएं दी हुई हैं। फलित भाग के बारे में बहुत बाद में जानकारी मिलती है। ज्योतिष ऐसा शास्त्र है जो आकाश मंडल में स्थित ग्रहों के आधार पर किसी घटना के विषय में बताता है। जन्म के समय आकाश में ग्रहों की एक निश्चित स्थिति होती है जिस प्रकार किसी मकान के विषय में उसके नक्शे से जाना जाता है जैसे नक्शे के आधार पर बिल्डिंग या मकान के स्वरूप को हम समझते हैं और उसे अच्छा बनाने का प्रयास करते हैं उसे जरूरत के अनुसार मॉडिफाई करते हैं उसी प्रकार जन्म के समय में आकाश में ग्रहों की एक निश्चित स्थिति होती है इस आधार पर पत्रिका में एक नक्शा बनता है जिसे कुंडली कहते हैं कुंडली में ग्रहों की स्थिति के आधार पर व्यक्ति के जीवन में प्रभाव पड़ता है। ज्योतिष में मुख्यतः 9 ग्रह, 28 नक्षत्रों और 12 राशियों के आधार पर उनके गुण- धर्म प्रभाव के आधार पर उनके मानव जीवन में पड़ने वाले असर को ज्ञात किया जाता है। ज्योतिष में ग्रहों का मुख्य पक्ष यह है कि ग्रह फलाफल के प्रणेता नहीं है यह मात्र सूचना देते हैं। सरल शब्दों में कहें तो ग्रह किसी को सुख दुख नहीं देते बल्कि आने वाले सुख-दुख की सूचना देते हैं।[1] भारतीय आचार्यों द्वारा रचित ज्योतिष की पाण्डुलिपियों की संख्या एक लाख से भी अधिक है। [2] प्राचीनकाल में गणित एवं ज्यौतिष समानार्थी थे परन्तु आगे चलकर इनके तीन भाग हो गए। (१) तन्त्र या सिद्धान्त - गणित द्वारा ग्रहों की गतियों और नक्षत्रों का ज्ञान प्राप्त करना तथा उन्हें निश्चित करना। (२) होरा - जिसका सम्बन्ध कुण्डली बनाने से था। इसके तीन उपविभाग थे । क- जातक, ख- यात्रा, ग- विवाह । (३) शाखा - यह एक विस्तृत भाग था जिसमें शकुन परीक्षण, लक्षणपरीक्षण एवं भविष्य सूचन का विवरण था। इन तीनों स्कन्धों ( तन्त्र-होरा-शाखा ) का जो ज्ञाता होता था उसे 'संहितापारग' कहा जाता था। तन्त्र या सिद्धान्त में मुख्यतः दो भाग होते हैं, एक में ग्रह आदि की गणना और दूसरे में सृष्टि-आरम्भ, गोल विचार, यन्त्ररचना और कालगणना सम्बम्धी मान रहते हैं। तत्र और सिद्धान्त को बिल्कुल पृथक् नहीं रखा जा सकता । सिद्धान्त, तन्त्र और करण के लक्षणों में यह है कि ग्रहगणित का विचार जिसमें कल्पादि या सृष्टयादि से हो वह सिद्धान्त, जिसमें महायुगादि से हो वह तन्त्र और जिसमें किसी इष्टशक से (जैसे कलियुग के आरम्भ से) हो वह करण कहलाता है । मात्र ग्रहगणित की दृष्टि से देखा जाय तो इन तीनों में कोई भेद नहीं है। सिद्धान्त, तन्त्र या करण ग्रन्थ के जिन प्रकरणों में ग्रहगणित का विचार रहता है वे क्रमशः इस प्रकार हैं- १-मध्यमाधिकार २–स्पष्टाधिकार ३-त्रिप्रश्नाधिकार ४-चन्द्रग्रहणाधिकार ५-सूर्यग्रहणाधिकार६-छायाधिकार ७–उदयास्ताधिकार ८-शृङ्गोन्नत्यधिकार ९-ग्रहयुत्यधिकार १०-याताधिकार 'ज्योतिष' से निम्नलिखित का बोध हो सकता है-
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