तेरी आँखों में खुदा बसता था, मेरी कलम फिर भी खामोश रही,
मैं ज़हर उगलता रहा अपने अतीत पर, तेरी मोहब्बत बेआवाज़ रही,
जिसने चाहा उसे कोसा हर पन्ने पर, और जो निभा गई वो कहीं नहीं,
मैंने हर दर्द को दर्ज किया, पर
मैंने तुझ पर लिखा ही नहीं
तेरे स्नेह ने सी दिए थे मेरे टुकड़े, फिर भी उन दरारों का शोर किया,
तू मुस्कान थी मेरी कहानियों की, फिर भी हर बार आँसू का ज़िक्र किया,
तू आई थी दवा बनकर, पर मैं बीमारी को गाता रहा हर दिन,
तेरा प्रेम पूजा सा पवित्र था, मगर
मैंने तुझ पर लिखा ही नहीं
तेरे छूने से भी डर गया था, कि कहीं फिर से टूट न जाऊँ,
तेरी नज़रों में खुद को देखा, फिर भी खुद को दोषी ही पाऊँ,
मैंने कलम उठाई दुनिया को समझाने को, क्या झूठा प्यार ना सहें किसी दिन,
पर तुझे समझाने, सराहने, अपनाने
मैंने तुझ पर लिखा ही नहीं
तू चुपचाप सुनती रही हर बार, जब मैं तेरे होने से इनकार करता गया,
तेरे सब्र की हदें लांघी मैंने, और तू बस मुस्कुरा कर सहती रही हर सज़ा,
तेरी हर ख़ामोशी में मेरा नाम था, फिर भी मैं चिल्ला के ग़ैरों को पुकारता गया,
तेरी उस वफ़ा को शब्द न मिले, क्योंकि
मैंने तुझ पर लिखा ही नहीं
जब भी दुनिया ने मुझे ग़लत समझा, तूने ही मेरी खामियाँ ओढ़ ली,
मैंने खुद को बेक़सूर बताया, पर तू हर सच्चाई को चुपचाप सहती रही,
हर मोड़ पे तेरा साया था, बस मेरी नज़रें बंद थीं,
तेरी मौज़ूदगी हमेशा थी, मगर
मैंने तुझ पर लिखा ही नहीं
तेरे नर्म लहजे में जन्नत थी, और मैंने शोर के गीत गाए,
तू तो हर मौसम में साथ थी, पर मैंने बस पतझड़ सजाए,
तेरा होना मेरी रूह में घुल चुका था, पर मैं ठंडे तन्हा शब्दों में उलझा रहा,
तेरे हिस्से की मोहब्बत मैंने रोकी ही नहीं, क्यूंकि
मैंने तुझ पर लिखा ही नहीं
हर बार जब तेरा ख्याल आया, मैंने उसे पुराने जख़्मों से ढाँप दिया,
तेरे नाम की जगह किसी बेवफा की स्याही से रातों को साँप दिया,
जो सच्चा था वो अधूरा ही रह गया, क्यूंकि मेरा सच सिर्फ झूठों से भरा दिखा,
तू सबसे हक़दार थी, मगर
मैंने तुझ पर लिखा ही नहीं
तू वो सफ़हा थी जो खुलते ही रौशनी भर दे,
पर मैंने धुंधली यादों को ही शायर कह दिया हर दफ़ा,
तू मेरी ख़ामोशी की सबसे प्यारी आवाज़ थी,
पर शोर को ही मैंने सुनाया, क्यूंकि
मैंने तुझ पर लिखा ही नहीं
तेरी आँखों में डूब कर जी उठता, अगर एक बार देख लेता,
तेरे हर इशारे में मोहब्बत थी, बस मैं ही अनपढ़ रह गया,
तू हर बार मेरी कहानी में हीरो थी, और मैंने खलनायक बना दिया खुद को भी,
तेरे नाम की इज़्ज़त बचाने के लिए ही
मैंने तुझ पर लिखा ही नहीं
अब जब लोग तारीफ करते हैं मेरी कलम की, तू याद आती है,
हर तालियों के बीच तेरा खामोश नज़रिया याद आता है,
मुझे लगता है अब भी सबसे सुंदर पंक्ति तेरा नाम है,
मगर उसी को छुपा के रखा, क्यूंकि
मैंने तुझ पर लिखा ही नहीं
तू चाहती तो हर कविता में तेरा ज़िक्र होता,
पर तुझे भुला देने की कोशिश में हर बार खुद को मिटा दिया,
तेरा नाम सबसे पाक था मेरी स्याही में,
पर उसे दुनिया की नज़रों से बचा कर
मैंने तुझ पर लिखा ही नहीं
अब जब आख़िरी कविता लिखनी है,
तो तेरा नाम पहली बार खुद से माँगा है,
जो सबसे पवित्र था, वो सबसे अनछुआ रहा,
इस बार सिर्फ़ तेरे लिए
मैंने तुझ पर लिखा है।