सोचता हूँ, फिर सोच कर सोच बदल देता हूँ,
शायद मैं ही हूँ जो खुद को हर रोज़ छल देता हूँ।
रात के दो बजे, जब दुनिया सोती है चुपचाप,
मैं उलझा रहता हूँ, ख़ुद से एक बेवजह की बात।
"क्या कहा था उसने?" ये सवाल फिर से आता है,
हर जवाब में एक नया शक जन्म पाता है।
मन में चलते हैं फ़िल्मों जैसे कई सीन,
हर लाइन का मतलब निकालता हूँ तीन तीन।
कभी लगता, वो सही थी मैं ही ग़लत था शायद,
फिर सोचता, नहीं मेरी चुप्पी भी तो नहीं थी कमज़ोर तब।
ख़ामोशी को भी खंगालता हूँ जैसे कोई सुराग हो,
हर मुस्कान के पीछे ढूँढता हूँ कोई भटका हुआ फ़रियाद हो।
ये सोचने की आदत अब बीमारी सी लगती है,
ज़हन में जैसे कोई टूटी हुई किताब की कहानी सी लगती है।
हर सोच के नीचे एक और सोच दबी होती है,
हर जवाब से पहले ही अगली उलझन खड़ी होती है।
कभी लगता सब ठीक है, कभी लगता सब झूठ है,
कभी मैं खुद को समझाता हूँ, कभी खुद ही से रूठ जाता हूँ।